Gratuity Rule : हाल ही में हाईकोर्ट ने ग्रेच्युटी से जुड़े एक अहम मुद्दे पर फैसला सुनाया है, जिससे कर्मचारियों के अधिकारों को मजबूत सहारा मिला है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी कर्मचारी की ग्रेच्युटी रोकने के लिए कंपनी को पहले वैध प्रक्रिया के तहत रिकवरी की कार्यवाही करनी होगी। यह निर्णय उन कर्मचारियों के लिए राहत की खबर है, जिनकी ग्रेच्युटी अक्सर नियोक्ताओं द्वारा मनमानी तरीके से रोक दी जाती है।
मामला क्या था? जानिए पूरी कहानी
यह केस सेंट्रल वेयरहाउसिंग कॉरपोरेशन और उनके पूर्व कर्मचारी जी.सी. भट के बीच का था। भट पर आरोप था कि उन्होंने 2013 में आर्थिक गड़बड़ी और कर्तव्य की अनदेखी की, जिसके बाद उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। इसके कई साल बाद, भट ने कंपनी से ग्रेच्युटी के रूप में करीब 14 लाख रुपये की मांग की।
ग्रेच्युटी अधिकारी का आदेश
2023 में ग्रेच्युटी अथॉरिटी ने इस विवाद पर फैसला सुनाते हुए कॉरपोरेशन को निर्देश दिया कि वह भट को ₹7.9 लाख ग्रेच्युटी के रूप में 10% वार्षिक ब्याज के साथ चुकाए। यह फैसला इस बात को उजागर करता है कि बर्खास्तगी के बावजूद कर्मचारी ग्रेच्युटी पाने के हकदार हो सकते हैं, जब तक कि वैध रूप से नुकसान साबित न हो।
कॉर्पोरेशन का पक्ष – Gratuity Rule
कॉर्पोरेशन ने इस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी। उनका तर्क था कि भट की वजह से कंपनी को करीब 1.7 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है, इसलिए ग्रेच्युटी रोकना उचित है। उन्होंने इसे कंपनी के नुकसान की भरपाई के रूप में देखा।
कोर्ट का जवाब और टिप्पणी
न्यायमूर्ति सुरज गोविंदराज ने इस पर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि जब तक रिकवरी की प्रक्रिया कानूनी रूप से नहीं की जाती, तब तक किसी कर्मचारी की ग्रेच्युटी रोकना गलत है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि जिन अधिकारियों को यह कार्यवाही करनी थी, उन्होंने अपने कर्तव्यों का पालन नहीं किया। कोर्ट ने साफ किया कि केवल नुकसान का दावा करना पर्याप्त नहीं है, जब तक कि वह विधिक प्रक्रिया से प्रमाणित न हो।
कानून क्या कहता है?
ग्रेच्युटी अधिनियम, 1972 की धारा 4(6) के अनुसार, यदि किसी कर्मचारी के कार्य से कंपनी को नुकसान होता है, तो नियोक्ता विशेष प्रक्रिया के तहत ग्रेच्युटी रोक सकता है। लेकिन बिना कानूनी कदम उठाए सीधे ग्रेच्युटी पर रोक लगाना नियमों के खिलाफ है।
इस फैसले का असर और महत्व – Gratuity Rule
यह फैसला कर्मचारियों के लिए एक मिसाल बन सकता है। इससे यह बात स्थापित होती है कि नियोक्ता मनमर्जी से ग्रेच्युटी नहीं रोक सकते। उन्हें कानून का पालन करना होगा और उचित दस्तावेजी कार्यवाही करनी होगी। इससे कर्मचारियों को उनके हक की सुरक्षा मिलती है और नियोक्ताओं को पारदर्शिता के साथ काम करने की दिशा में प्रेरणा मिलती है।
नियोक्ताओं और कर्मचारियों के लिए सीख
नियोक्ताओं को इस फैसले से सीख लेनी चाहिए कि कोई भी कार्रवाई करने से पहले नियमों का पालन जरूरी है। वहीं कर्मचारियों को भी अपने अधिकारों के बारे में जागरूक रहना चाहिए और जरूरत पड़ने पर कानूनी मदद लेने से पीछे नहीं हटना चाहिए।
यह निर्णय यह साबित करता है कि कानून सभी के लिए बराबर है और कर्मचारी हो या नियोक्ता, कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। हाईकोर्ट का यह कदम न केवल कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि पूरे श्रम तंत्र में न्याय और पारदर्शिता की मिसाल पेश करता है।